ज़िन्दगी और गुलाब के फूल
– उषा प्रियम्वदा
सुबोध काफ़ी शाम को घर लौटा। दरवाज़ा खुला था, बरामदे में हल्की रोशनी थी, और चौके में आग की लपटों का प्रकाश था। अपने कमरे में घुसते ही उसे वह ख़ाली–खाली सा लगा। दूसरे क्षण ही वह जान गया कि कमरे का क़ालीन निकाल दिया गया है और किनारे रखी हुई मेज़ भी नहीं है। मेज़ पर काग़ज़ के फूलों का जो गुलदस्ता रहता था, वह कुछ ऐसे कोण से खिड़की पर रखा था कि लगता था, जैसे मेज़ हटाते वक़्त उसे वहाँ वैसे ही रख दिया गया हो।
उसने बहुत कोमलता से गुलदान उठा लिया। काग़ज़ के फूल थे तो क्या, गुलदान तो बहुत बढ़िया कट ग्लास का था। पहले कभी–कभी शोभा अपने बाग़ के गुलाब लगा जाती थी, पर अब तो इधर, कई महीनों से यही बदरंग फूल थे और शायद यही रहेंगे। सुबोध ने फिर खिड़की का गुलदान रखते हुए सोचा, हाँ, यही रहेंगे, क्योंकि शोभा की सगाई हो गई थी, और उसका भावी पति किसी अच्छी नौकरी पर था। सुबोध ने कोट उतारकर खूँटी पर टाँग दिया। …आख़िर कब तक शोभा के पिता उसके लिए अपनी लड़की कुँवारी बैठाए रखते?… सुबोध खिड़की के पार देख रहा था—धूल–भरी साँझ, थके चेहरे, बुझे हए मन…
फिर वह माँ के पास आया। उसकी माँ चौके में चूल्हे के पास बैठी थीं। वह वहीं पीढ़े पर बैठ गया। कुछ देर कोई नहीं बोला। माँ ने दो–एक बार उसे देखा ज़रूर, पर कुछ कहा नहीं, पत्थर की मूर्ति की तरह बैठी रहीं, ऐसी मूर्ति जिसकी केवल आँखें जीवित थीं।
एकाएक सुबोध पूछ बैठा, “अम्माँ, मेरे कमरे का क़ालीन कहाँ गया? धूप में डाला था क्या?”
बाएँ हाथ से धोती का पल्ला सिर पर खींचती हुईं माँ बोलीं, “वृन्दा अपने कमरे में ले गई है। उसकी कुछ सहेलियाँ आज खाने पर आएँगी।”
सुबोध को अपने पर आश्चर्य हुआ कि वह इतनी–सी बात पहले ही क्यों न समझ गया? उसकी सारी चीज़ें वृन्दा के कमरे में जा चुकी थीं, सबसे पहले पढ़ने की मेज़, फिर घड़ी, आराम–कुर्सी और अब क़ालीन और छोटी मेज़ भी। पहले अपनी चीज़ वृन्दा के कमरे में सजी देख उसे कुछ अटपटा लगता था, पर अब वह अभ्यस्त हो गया था यद्यपि उसका पुरुष–हृदय घर में वृन्दा की सत्ता स्वीकार न कर पाता था।
उसे अनमना हो आया देख माँ ने कहा, “तुम्हारे इन्तज़ार में मैंने चाय भी नहीं पी। अब बना रही हूँ, फिर कहीं चले मत जाना।” और पतीली का ढँकना उठाकर देखने लगीं।
सुबोध दोनों हाथों की उँगलियाँ एक–दूसरे में फँसाए बैठा रहा। उसके कन्धे झुक गए और उसके चेहरे पर विषाद और चिन्ता की रेखाएँ गहरी हो गईं। सशंक नेत्रों से माँ उसे देखती रही। मन–ही–मन कई बातें सोची कहने की, मौन का अन्तराल तोड़ने की, पर न जाने क्यों वाणी न दे सकी। उसकी आँखों के सामने ही सुबोध बदलता जा रहा था। इस समय उसके नेत्र माँ पर अवश्य थे, पर वह उनसे हज़ारों मील दूर था। मौन रहकर जैसे वह अपने अन्दर अपने–आपसे लड़ रहा हो। काश, सुबोध फिर वही छोटा–सा लड़का हो जाता, जिसके त्रास वह अपने स्पर्श से दूर कर देती थी। पर सुबोध जैसे अब उसका बेटा नहीं रहा था, वह एक अनजान, गम्भीर, अपरिचित पुरुष हो गया था, जो दिन–भर भटका करता था, रात को आकर सो रहता था। सुख के दिन उसने भी जाने थे। अच्छी नौकरी थी, शोभा थी। अपने पुराने गहने तुड़ाकर माँ ने कुछ नई चीज़ें बनवा ली थीं, और अब वे नए बुन्दे और बालियाँ, हार और कंगन बक्स में पड़े थे। शोभा की शादी होनेवाली थी और सुबोध बदलता जा रहा था।
दो धुंधली, जलभरी आँखें दो उदास आँखों से मिलीं। उनमें एक मूक अनुनय थी। सुबोध ने माँ के चेहरे को देखा और मुस्करा दिया। शब्द निरर्थक थे, दोनों एक–दूसरे की गोपन व्यथा से परिचित थे। उनमें एक मूक समझौता था। माँ ने इधर बहुत दिनों से सुबोध से नौकरी के विषय में नहीं पूछा था, और सुबोध भी अपने–आप यह प्रसंग न छेड़ना चाहता था।
उसने कहा, “देखो, शायद पानी खौल गया।”
माँ चौंकी, दो बार जल्दी–जल्दी पलक झपकाए। फिर खड़ी होकर अलमारी से चायदानी उठायी। उसे गरम पानी से धोया, बहुत सावधानी से चाय की पत्ती डाली और पानी उँडेला। फिर उस पर टीकौजी लगा दी। वह टीकौजी वृन्दा ने काढ़ी थी और उसकी शादी की आशा में बरसों माँ बक्स में रखे रहीं। अब उसे रोज़ व्यवहार करना माँ की पराजय थी। उससे बड़ी पराजय थी सुबोध की, जो अपनी छोटी बहन की शादी नहीं कर पाया था। टीकौजी पर एक गुलाब का फूल बना था और सुबोध उन गुलाब के फूलों की याद कर रहा था, जो शोभा उसके कमरे में सजा जाती थी, उन बाली और बुन्दों की सोच रहा था, जो शोभा अब नहीं पहनेगी…
दूध गरम कर और प्याला पोंछकर माँ ने चाय सुबोध के आगे रख दी। सुबोध पीढ़े पर पालथी मारकर बैठ गया, और चाय छानने लगा।
माँ अपनी कोठरी में जाकर कुछ खटर–पटर कर रही थी। ज़रा देर में ही एक तश्तरी में चाँदी का वर्क़ लगा हुआ सेब का मुरब्बा लाकर माँ ने उसके सामने रख दिया और बड़े दुलार से कहा, “खा लो!”
अपने विचार पीछे ठेलकर, कुछ सुस्त हो, हँसते हुए सुबोध ने कहा, “अरे अम्माँ! बड़ी ख़ातिर कर रही हो! क्या बात है?”
माँ ने स्नेह–कातर कंठ से कहा, “तुम कभी ठीक वक़्त से आते भी हो! रात को दस–ग्यारह बजे आए। ठंडा–सूखा खा लिया। सुबह देर से उठे, दोपहर को फिर ग़ायब। कब बनाऊँ, कब दूँ?”
यह चर्या तो सुबोध की पहले भी थी। तब वृन्दा और माँ दोनों उसके इन्तज़ार में बैठी रहती थीं। वृन्दा हमेशा बाद में खाती थी। सुबोध की दिनचर्या के ही अनुसार घर के काम होते थे। पर तब वृन्दा नौकरी नहीं करती थी, तब सुबोध बेकार न था। अब खाना वृन्दा की सुविधा के अनुसार बनता था। सुबह उसे जल्दी उठना होता था, इसलिए रात को जल्दी खाकर सो जाती थी। अब सुबोध जब साढ़े आठ पर सोकर उठता तो आधा खाना बन चुकता था। जब नौ बजे वृन्दा खा लेती, तो वह चाय पीता। पहले जब तक वह स्वयं अख़बार न पढ़ लेता था, वृन्दा को अख़बार छूने की हिम्मत न पड़ती थी, क्योंकि वह हमेशा पन्ने ग़लत तरह से लगा देती थी। अब उसे अख़बार लेने वृन्दा के कमरे में जाना पड़ता था और इसीलिए उसने घर पर अख़बार पढ़ना छोड़ दिया था।
जूठे बर्तन समेटते हुए माँ ने कुछ कहना चाहा, पर रुक गई। उसका असमंजस भापकर सुबोध ने पूछा, “क्या है?”
प्याला धोते हुए, मन्द स्वर में माँ ने कहा, “घर में तरकारी कुछ नहीं है।”
सुबोध ने उठकर कील पर टँगा मैला थैला उतार लिया। माँ ने आँचल की गाँठ खोलकर मुड़ा–तुड़ा एक रुपए का नोट उसे थमा दिया और कहा, “ज़रा जल्दी आना! अभी सारी चीज़ें बनाने को पड़ी हैं।”
सुबोध कोट पहने बिना ही बाज़ार चल दिया। यह पतलून वह काफ़ी दिनों से पहन रहा था। कमीज़ के फटे हुए कफ़ और कॉलर काफ़ी गन्दे थे, पर उसने परवाह नहीं की। पर दोनों हाथों से थैले का मुँह पकड़कर उसमें गन्दी तराजू से मिट्टी लगे आलू डलवाते हुए सुबोध को एक झटका–सा लगा। उसके पास ही किसी का पहाड़ी नौकर भाव पूछ रहा था। उसके चीकट बालों से माथे पर तेल बह रहा था, मुँह से बीड़ी का कड़वा धुआँ निकल रहा था। वह भी थैला लिए था और तरकारी लेने आया था। सुबोध अचानक ही सोच उठा कि वह कहाँ से कहाँ आ पहुँचा है! अपने अफ़सर की अपमानजनक बात सुनकर तो उसने अपने आत्म–सम्मान की रक्षा के लिए इस्तीफ़ा दे दिया था, लेकिन अब कहाँ है वह आत्म–सम्मान? छोटी बहन पर भार बनकर पड़ा हुआ है। उसे देखकर माँ मन–ही–मन घुलती रहती है। ज़िन्दगी ने उसे भी गुलाब के फूल दिए थे, लेकिन उसने स्वयं ही उन्हें ठुकरा दिया और अब शोभा भी…
हाथ झाड़कर सुबोध ने पैसे दिए और चल पड़ा। इस सबके बावजूद उसके अन्दर एक तुष्टि का हल्का–सा आलोक था कि इस्तीफ़ा देकर उसने ठीक ही किया। उसके जैसा स्वाभिमानी व्यक्ति अपमान का कड़वा घूँट कैसे पी लेता? स्वाभिमान? सुबोध के होंठ एक कड़वी मुस्कान से खिंच उठे। वाह रे स्वाभिमानी! उसने अपने आप से कहा।
उसे वह सब बातें स्पष्ट होकर फिर याद आ गईं, वे बातें जो रह–रहकर टीस उठती थीं। सुबोध स्मृति का एलबम खोलने लगा। हर चित्र स्पष्ट था।
नौकरी छोड़कर वह कुछ महीने घर नहीं लौटा, वहीं दूसरी नौकरी खोजता रहा और जब लौटा तो उसने घर का चित्र ही बदला हुआ पाया। उसकी अनुपस्थिति में वृन्दा ने उसकी मेज़ ले ली थी और उसके लौटने पर वृन्दा ने अवज्ञा से कहा था, “दादा, आप क्या करेंगे मेज़ का? मुझे काम पड़ेगा।”
सुबोध कुछ तीखी–सी बात कहते–कहते रुक गया। कई साल में घिसट–घिसटकर बी.ए., एल.टी. कर लेने और मास्टरनी बन जाने से ही जैसे वृन्दा का मेज़ पर हक़ हो गया हो! कोई अध्यापिका होने से ही पुस्तकों का प्रेमी नहीं हो जाता।
सुबोध की उस मेज़ पर अब जूड़े के काँटे, नेलपॉलिश की शीशी और गर्द–भरी किताबें पड़ी रहती थीं और फिर कुछ दिनों बाद माँ ने कहा, “वृन्दा को रोज़ स्कूल जाने में देर हो जाती है। अपनी अलार्म घड़ी दे दो, सुबोध!”
सुबोध ने कठोर होकर कहा था, “नई घड़ी ख़रीद क्यों नहीं लेती? उसे कमी है?”
माँ ने आहत और भर्त्सनापूर्ण दृष्टि से उसे देखकर कहा, “उसके पास बचता ही क्या है! तुम ख़र्च करते होते तो जानते!”
“नहीं, मुझे क्या पता? हमेशा से तो वृन्दा ही घर का ख़र्च चलाती आयी है। मैं तो बेकार हूँ, निठल्ला।” और झुँझलाकर सुबोध ने घड़ी उसे दे दी थी।
सबसे अधिक आश्चर्य तो उसे वृन्दा पर था। अक्सर वह सोच उठता था कि यह वही वृन्दा है, जो उसके आगे–पीछे घूमा करती थी, उसके सारे काम दौड़–दौड़कर किया करती थी! जब भी उसने चाय माँगी, वृन्दा ने चाय तैयार कर दी। और अब? एक रात ज़रा देर से आने पर उसने सुना, वृन्दा बिगड़कर माँ से कह रही थी, ‘काम न धन्धा, तब भी दादा से यह नहीं होता कि ठीक वक़्त पर खाना खा लें। तुम कब तक जाड़े में बैठोगी, माँ? उठकर रख दो, अपने–आप खा लेंगे’।
उसके बाद सुबोध रात को चुपचाप आता। ठंडा खाना खाकर अपने कमरे में लेट जाता। सुबह जग जाने पर भी पड़ा रहता और वृन्दा के चाय पी लेने पर उठकर चाय पीता। बाज़ार से सौदा ला देता। मैले ही कपड़े पहनकर बाहर चला जाता। और जब थक जाता, तो खिड़की के बाहर देखने लगता।
माँ प्रतीक्षा में दरवाज़े पर खड़ी थीं। उनके हाथ में थैला देकर वह अपने कमरे में चला गया। कमरा उसे फिर नग्न और सूना–सा लगा। जूते उतारकर वह चारपाई पर लेट गया। चारपाई बहुत ढीली थी। उसके लेटते ही दरी सिकुड़ गई, तकिया नीचे खिसक आया। दरी की सिकुड़ने पीठ में गड़ती रहीं। सुबोध की आँखें बन्द थीं। हाथ शिथिल और कान अन्दर और बाहर के विभिन्न स्वर सुनते रहे। खिड़की के पास से गुज़रते दो बच्चे, सड़क पर किसी राही की बेसुरी बजती बाँसुरी, खटखट करते दो भारी जूते, अन्दर बर्तन की हल्की खटपट, तरकारी में पानी पड़ने की छन्न और खींची जाती चारपाई के पायों की फ़र्श से रगड़…।
तभी बाहर का दरवाज़ा अचानक खुला और वृन्दा ने कुछ तीखे स्वर में पूछा, “अम्माँ, दादा घर में हैं?”
सुबोध सुनकर भी न उठा। माँ का उत्तर सुन वृन्दा उसके कमरे के दरवाज़े पर खड़ी होकर बोली, “दादा, ताँगेवाले को रुपया भुनाकर बारह आने दे दो।”
सुबोध ने चप्पलों में पैर डाले, उसके हाथ से रुपया लिया और बाहर आया।
उसकी दृष्टि सामने खड़ी शोभा से मिल गई। उसके नमस्कार का संक्षिप्त उत्तर दे वह बाहर आ गया। नोट तुड़ाकर ताँगेवाले को पैसे दिए और फिर अन्दर नहीं गया। पड़ोस में एक परिचित के घर बैठ गया, और शतरंज की बाज़ी देखने लगा।
वहाँ बैठे–बैठे जब उसने मन में अन्दाज़ लगा लिया कि अब तक शोभा और निर्मला खाना खाकर चली गई होंगी, तो वह घर आया। सड़क पर सन्नाटा हो गया था। बत्तियों के आसपास धुंधले प्रकाश का घेरा था, और पानवाला, ग्राहकों की प्रतीक्षा में चुप और स्थिर बैठा था।
वृन्दा ने झुँझलाकर कहा, “कहाँ चले गए थे, दादा? शोभा और निर्मला कब से घर जाने को बैठी हैं! तुम्हें पहुँचाने जाना है।”
“मुझे मालूम नहीं था”, सुबोध ने कहा।
“जैसे कभी शोभा को घर पहुँचाया नहीं है!” वृन्दा ने कहा।
“तब”, सुबोध ने सोचा, “तब शोभा की सगाई कहीं और नहीं हुई थी, तब वह बेकार न था। शोभा उससे शरमाती थी, पर उसके गुलदान में फूल लगा जाती थी। माँ नए गहने बनवा रही थीं, और वृन्दा अपने कमरे में बैठी–बैठी कुढ़ती थी, क्योंकि वह बदसूरत थी और उससे कोई शादी करने को राज़ी नहीं होता था…”
“अच्छा तो चलें”, सुबोध ने शोभा की ओर नहीं देखा।
पर शोभा बोल पड़ी, “हमें जल्दी नहीं है। आप खाना खा लीजिए।”
माँ ने कढ़ाई चूल्हे पर चढ़ा दी। वृन्दा निर्मला को लेकर अपने कमरे में चली गई। सुबोध बैठ गया और शोभा ने उसके आगे तिपाई लाकर रख दी। फिर उसने रेशमी साड़ी का आँचल कमर में खोंस लिया और थाली लाकर उसके सामने रख दी। सुबोध नीची नज़र किए खाने लगा। चौके से बरामदे, बरामदे से चौके में बार–बार जाती हुई शोभा की साड़ी का बॉर्डर उसे दिखायी देता रहा, हरी साड़ी, जोगिया बॉर्डर, जिस पर मोर और तोते कढ़े हुए थे। कभी–कभी एड़ियाँ भी झलक उठतीं, उजली, चिकनी एड़ियाँ। सुबोध को लगता कि वह अतीत में पहुँच गया है। और शोभा वही है, वही जिससे कभी उसकी प्यार की बातें नहीं हुईं, पर जो अनायास ही उससे शरमाने लगी थी। शायद उसे पता चल गया था कि उसके पिता ने सुबोध से बातचीत शुरू कर दी है… और शायद अब तक शादी भी हो जाती, अगर सुबोध को कोई दूसरी नौकरी मिल जाती या अगर सुबोध पहली अच्छी नौकरी न छोड़ता….
सुबोध ने खाना बन्द कर दिया। पानी पीकर, हाथ धोने उठा, तो शोभा झट से हाथ धुलाने लगी। उसकी आँखों में विनय–भरी कातरता थी, उसके मुख पर उदासी, पर उसके बालों से सुबास आ रही थी।
जब वह ताँगा लेकर आया, तो शोभा माँ के पास चुप खड़ी थी और माँ उसके सिर पर हाथ फेर रही थीं।
रास्ते–भर दोनों चुप रहे। सबसे पहले निर्मला का घर आया, उसके उतर जाने पर शोभा ने आँसू–भरे कंठ से कहा, “आप यहाँ पीछे आ जाइए न!”
वह उतरकर पीछे आ गया, तब बोली, “कुछ बोलेंगे नहीं?”
“क्या कहूँ?” सुबोध ने उसकी ओर मुड़कर उसे देखते हुए कहा।
शोभा की आँखें छलक रही थीं। पोंछकर कहा, “मैंने तो पिताजी से बहुत कहा।… फिर आख़िर मैं क्या करती?”
“मैंतो कुछ भी नहीं कह रहा हूँ। इस बात को स्वीकार कर लो कि मैं ज़िन्दगी में फ़ेलियर हूँ, कम्पलीट फ़ेलियर। कुछ नहीं कर सका! जैसे मेरी ज़िन्दगी में अब फुलस्टॉप लग गया है। अब ऐसे ही रहूँगा। तुम्हारे फ़ादर ने ठीक ही किया। तुम सुखी होओगी। प्यार से बड़ी एक और आग होती है, भूख की, पेट की! वह आग धीरे–धीरे सब कुछ लील लेती है…”
“आप इतने बिटर क्यों हो गए हैं?”
“ज़िन्दगी ने ही मुझे बिटर बना दिया है, फिर जैसे जागकर ताँगेवाले से कहा, “अरे बड़े मियाँ! लौटा ले चलो, घर तो पीछे छूट गया।”
शोभा उतरी। कुछ क्षण अनिश्चित–सी खड़ी रही। सुबोध के हाथ बढ़े, पर फिर पीछे लौट आए, “अच्छा, शोभा।”
“नमस्ते”, शोभा ने कहा और वह अन्दर चली गई।
ताँगे में अकेला सुबोध सड़क पर घोड़े की एकरस टापों के शब्द को सुन रहा था। कभी–कभी ताँगेवाला खाँस उठता और वह खाँसी उसका शरीर झिंझोड़ जाती। अँधेरा… खाँसी… और आख़िरी सपने की भी मौत!
सुबह उठकर सुबोध ने सबसे पहले बरामदे में बैठे धोबी को देखा। जितनी देर में उसके लिए चाय बनी, उसने अपने सारे गन्दे कपड़े इकट्ठे कर, उनका ढेर लगा दिया। अलमारी में सिर्फ़ एक साफ़ कमीज़ बची थी, पीठ पर फटी हुई। उसे ढकने के लिए सुबोध ने कोट पहन लिया। कोट को भी काफ़ी दिनों से धोबी को देने का इरादा था, परन्तु अब जब तक धोबी कपड़े लाए, तब तक यही सही।
चाय पीकर वह बाहर चला आया। कोट की जेबों की तलाशी लेने पर उँगलियाँ एक इकन्नी से जा टकरायीं। पानवाले की दुकान पर सिगरेट ख़रीदा और जलाकर एक गहरा कश खींचा, और दो–एक जगह रुककर वापस चला। रास्ते में धोबी मिला, और उसने सुबोध को दोबारा सलाम किया।
“कपड़े ज़रा जल्दी लाना, समझे?” कुछ रोब से सुबोध ने कहा।
“अच्छा बाबूजी!” धोबी चला गया।
कमरे में घुसते ही मैले कपड़ों का ढेर उसे वैसे ही दिखायी पड़ा, जैसा कि छोड़ गया था। उसने वहीं रुककर पुकारा, “अम्माँ! मेरे कपड़े धुलने नहीं गए।”
“पता नहीं, बेटा। वृन्दा दे रही थी, उससे कहा भी था कि तुम्हारे भी दे दे…”
सुबोध को न जाने कहाँ का ग़ुस्सा चढ़ आया। चीख़कर बोला, “कितने दिनों से गन्दे कपड़े पहन रहा हूँ! पन्द्रह दिन में नालायक़ धोबी आया, तो उसे भी कपड़े नहीं दिए गए। तुम माँ–बेटी चाहती क्या हो? आज मैं बेकार है, तो मुझसे नौकरों–सा बर्ताव किया जाता है! लानत है ऐसी ज़िन्दगी पर।”
माँ त्रस्त हो उठीं। जब सुबोध का कंठ–स्वर इतना ऊँचा हो गया कि बाहर तक आवाज़ जाने लगी, तो वह रो दी। उन्होंने कुछ कहना चाहा, मगर सुबोध ने अवसर नहीं दिया। कहता गया, “मुझे मुफ़्त का नौकर समझ लिया है? पहले कभी तुमने मुझे यह सब काम करते देखा था।”
फिर उनके कंठ की नक़ल करता हुआ बोला, “घर में तरकारी नहीं है! वृन्दा की सहेलियाँ खाना खाएँगी। उधर हमारी बहन हैं कि हुकूमत किया करती है! अब मैं समझ गया हूँ कि मेरी इस घर में क्या क़द्र है। मैं आज ही चला जाऊँगा। तुम दोनों चैन से रहना।”
कहता–कहता वह घर से बाहर आ गया। अपनी छटपटाहट में उसके अन्दर तक तीव्र विध्वंसक प्रवृत्ति जाग उठी। उसका मन चाह रहा था कि जो कुछ भी सामने पड़े, उसे तहस–नहस कर डाले। वह चलता गया और उसी धुन में एक साइकिल सवार से टकरा गया। वह गिर पड़ा, उसके ऊपर साइकिल आ गई और वह व्यक्ति सबसे ऊपर। जब उसकी कोहनियाँ खुरदुरी सड़क से छिलीं, और एक तीव्र पीड़ा हुई, तो उसका ध्यान बँटा। वह कुछ हक्का–बक्का–सा रह गया। उसने पाया कि उस व्यक्ति ने उससे तकरार नहीं की, अपने कपड़े झाड़े और साइकिल उठाते हुए कहा, “भाई साहब, ज़रा देखकर चला कीजिए। चोट तो नहीं आयी।”
अगर वह लड़ता तो उस मूड में शायद सुबोध मारपीट करने को उतारू हो जाता। पर उसकी अप्रत्याशित विनम्रता से सुबोध ठिठककर रह गया।
जब सुबोध ने उठकर चलने की कोशिश की तो पाया कि बायाँ पैर सूजने लगा है। लँगड़ाता हुआ वह पार्क की बेंच पर आकर बैठ गया। उसकी दाहिनी कोहनी से ख़ून टपक रहा था। ज़रा–सा भी हिलने से पैर में तीव्र पीड़ा होने लगती थी। उसने सम्भालकर पैर बेंच पर रख लिया और लेट गया।
अपना ध्यान पीड़ा से हटाने के लिए वह फूलों को देखने लगा। उसकी बेंच के पास ही गुलाब की घनी बेल थी, जिसमें हल्के पीले फूल थे। दर्द बढ़ता जा रहा था। उसने हिलना–डुलना भी बन्द कर दिया। कुछ देर स्थिर पड़े रहने से दर्द में विराम हुआ, तो उसके ख़याल फिर सवेरे की घटना पर केन्द्रित हो गए।
उसका पैर हिला और दर्द की एक तेज़ लहर उठकर पूरे बाएँ पैर में व्याप्त हो गई। सुबोध ने होंठ भींच लिए।
जाड़ों की धूप थी पर लोहे की बेंच धीरे–धीरे गरम होती जा रही थी और बेंच का एक उठा हुआ कोना उसकी पीठ में गड़ रहा था। पर वह हिला–डुला नहीं। आँखें खोलकर सड़क की ओर देखा, तो स्कूल जाते हुए बच्चे, साइकिलें, खोमचेवाले… उसने आँखें बन्द कर लीं। जब पैर का दर्द कम होता, तो कोहनी छरछराने लगती। पर इस आत्म–पीड़न से जैसे उसे कुछ सन्तोष–सा हो रहा था।
वह कब सो गया, उसे पता नहीं। जब आँखें खुलीं, तो सूरज सिर पर था और बेंच तप रही थी। वह उठकर, बायाँ पैर घसीटता और दर्द सहता हुआ छाँह में घास पर लेट गया। उस पर एक बेहोशी–सी छायी जा रही थी। घास का स्पर्श शीतल था, सुखदाई हवा में गुलाब के फूलों की सुवास थी, पर उसे चैन न था।
उसे अचानक माँ का ध्यान आ गया। शायद वह चिन्तित दरवाज़े पर खड़ी हों, शायद वह उसके इन्तज़ार में भूखी हों। उसने एक लम्बी साँस ली और बाँहें सिर के नीचे रख लीं।
दिन कितना लम्बा हो गया था कि बीत ही नहीं रहा था। जैसे एक युग के बाद आकाश में एक तारा चमका और फिर अनेक तारे चमक उठे। सुबोध घास में से उठकर फिर बेंच पर लेट गया। उसके सिर में भारीपन था, मुँह में कड़वाहट, पैर में जैसे एक भारी पत्थर बँधा था। सारा दिन हो गया था, पर उसे कोई खोजता हुआ नहीं आया। वृन्दा को तो पता था कि वह अक्सर पार्क में बैठा करता है। मगर उसे क्या फ़िक्र?
पार्क से लोग उठ–उठकर जाने लगे थे। बच्चे, उनकी आयाएँ, स्वास्थ्य ठीक रखने के लिए घूमने आनेवाले प्रौढ़, दो–दो चोटियाँ किए, हँस–हँसकर एक–दूसरे पर गिरती मुहल्ले की लड़कियाँ… पार्क शान्त हो गया। हरी घास पर बच गए मूँगफली के छिलके, पुड़ियों के काग़ज़ के टुकड़े, तोड़े गए फूलों की मसली हुई पंखुड़ियाँ…
तीन फाटक बन्द कर लेने के बाद चौकीदार सुबोध की बेंच के पास आकर खड़ा हो गया।
“अब घर जाओ, बाबू, पार्क बन्द करने का टेम हो गया।”
बिना कुछ कहे सुबोध उठ गया। दो–दो क़दम लड़खड़ाया, फिर चलने लगा। हर बार जब बायाँ पैर रखता, तो दर्द होता। धीरे–धीरे लँगड़ा–लँगड़ाकर वह पार्क से बाहर निकल आया।
दरवाज़ा खुला था। बरामदे में मद्धिम रोशनी थी। चौके में अँधेरा। वह अपने कमरे में आया। कोने में मैले कपड़ों का ढेर था। ढीली चारपाई, गन्दा बिस्तर, तिपाई पर खाना ढँका हुआ रखा था।
सुबोध चारपाई पर बैठ गया, और तिपाई खींचकर लालचियों की तरह जल्दी–जल्दी बड़े–बड़े कौर खाने लगा।